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चुप बैठे हैं ज्वालामुखी,
राख गिर रही है उनके गह्वर में।
आराम फरमा रहे हैं दैत्य
कुकर्म कर लेने के बाद।
उल्लासहीन पड़ गई हैं उनकी संपत्तियाँ
और अधिक भारी लग रही हैं वे उनके कंधों को
बार-बार प्रेतात्माएँ
प्रकट होती है उनकी रातों में।
सपनों में उन्हें दिखता है वह अभिशप्त नगर
ज्ञात नहीं जिसे अपनी ही नियति,
दिखाई देते है स्तंभ और उद्यान
लावे से घिर आते हुए।
वहाँ लड़कियाँ हाथों में लेती है फूल
जो खिलकर कब के मुरझा चुके हैं
वहाँ सकेत देते हैं सुरा के प्रेमी
सुरापान कर रहे पुरुषों को।
आरंभ हो जाता है सुरापान का दौर
अश्लील हो जाती है भाषा
गरमी आ जाती है वातावरण में और विवेकहीनता भी
ओ राजकुमारी, ओ दासकन्या, ओ मेरी बिटिया पंपेई!
अपनी सुखद नियति की कैद में
किसके विषय में सोच रही थी तू
जब इतने साहस के साथ झुक आई थी तू
वीसूवियस पर अपनी कुहनियों के बल?
खो गई थी तू उसकी कहानियों में,
फैला दी थी तूने अपनी पुतलियाँ
सहन न हो सकी तुझसे
असंयत प्रेम की गड़गड़ाहट।
दिन बीतते ही,
अपने बुद्धिमान ललाट के बल
वह गिर पड़ा तेरे मृत पैरों पर
चिल्लाता हुआ : ''क्षमा करना मुझे!''
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